एक जमाना था जब गांव के मसले गांव मे ही पंचायत के माध्यम से निबटा लिए जाते थे, तब भरोसा था दुश्मन का दुश्मन पर l आज भाई ,भाई का न रहा I पुरखों ने जायदाद किसको कितनी दी इस बात का पुश्त-दर-पुश्त बिला लिखा पढी लिहाज माना जाता था l तब सचमुच पंच “परमेश्वर” हुआ करते थे ,आज जुम्मन शेख और अलगू चौधरी का जमाना ही न रहा l इधर पिता की आखें क्या मुंदी, कि संताने कचहरी का रुख कर लेतीं हैँ और कचहरी का भी क्या कहना ,फाइलों के ऊंचे ऊंचे अम्बारों के बीच बड़ी बेशर्मी से नजर बचाकर रिश्वत लेते पेशकार l पेशियों की तारीखें बे-भाव बढ़ती रहती है l किस्सा मशहूर है एक रोटी के लिए दो बिल्लियां लड़ीं इस लड़ाई मे बन्दर के पास दोनों फैसला कराने गईं, उसने बड़ी गंभीरता से रोटी के दो टुकड़े करके तराजू के दोनों पलड़ों में रखा,पलड़ा जिसमे भारी हो उसका टुकड़ा नोच कर मुंह में डाल लेता अंत में रोटी ख़तम हो गयी , दोनों बिल्लियाँ एक दुसरे का मुंह ताकती हुई वहां से चली गईं l मज़बूरी का फायदा उठाते हैं पुलिस के मुंशी,पेशकार, वकील, यूँ समझो कि घुन सा चाट जाते है धन से भी,धरम से भी l तुलसी बाबा की बात बहुत ही प्रासंगिक है ” का बरसा जब कृषी सुखाने,समय चूकि पुनि का पछिताने ” अर्थात समय पर ही न्याय मिले तो ठीक ,नही तो अन्याय ,जो मानवता के प्रति संवेदना को ही खा जाती है l अंग्रेजी में भी कहा है कि JUSTICE DELAY-JUSTICE DENY अर्थात “न्याय में बिलम्ब, न्याय देने से मना कर देना है“
कहानी एक गांव की है जहाँ बद्री एक संभ्रान्त व्यक्ति होते थे उन्होंने अपने बाहुबल से काफी अचल संपत्ति बनाया उनकी अकूत संपत्ति का उन्होंने बड़े ही तरीके से बटवारा कर दिया l तीन बच्चों में सब से बड़ा बंशी , मझला था रघु और तीसरा था लाखन तीनो की प्रकृति अलग अलग थी l बंशी हमेशा अपने ही परिवार के हित की सोचता दीखता ,बोल मीठे होते हुए भी कुटिल था रघु बूढ़े होते माता पिता की सेवा के साथ बाकी भाइयों की निःस्वार्थ सेवा करता ओर तीसरा सबसे छोटा बाल सुलभ मटरगस्ती में रहता किन्तु अपनी माँ का दुलारा भी था l बंशी अपने गृहस्थी की गाड़ी दौड़ा रहा था ,बड़े चैन से धन आवक होने से मजे के दिन कट रहे थे तभी बंशी के पिता की तबियत ख़राब हुई l अब बंशी के पिता को काम में कमी से धन लक्ष्मी का आगमन रुक गया पैसों की तंगी और बीमारी ने घर को जैसे जकड लिया हो l पिता बद्री ने बंशी को बुलाकर कहा -बेटा, इन दिनों घर के हालात अच्छे नहीं चल रहे हैं ,तुम पर अभी माता लक्ष्मी की कृपा है तुम्हारे काम में आमद है अतः कुछ रघु और लाखन के साथ हमारी भी कुछ मदद कर दो l बंशी बिना कुछ कहे वहां से चला गया बद्री मुंह ताकते हुए भाग्य को कोष रहे थे कि उसके अपने बेटे ने अटके-संकरे में हाथ बटाने की बात पर न तो हाँ कहा और न इंकार किया l
अगले ही दिन बंशी ने अलग होने की घोषणा करके चूल्हा अलग कर लिया अब परिवार की जिम्मेदारी भी अलग-अलग हुई तो बद्री को बड़े ही गरीबी और संघर्ष से दिन काटने पड़े l आर्थिक संकट के बीच बद्रीअपने बेटे बंशी की बे रुखी से नाराज होकर चुप चुप रहने लगे थे l पिता से रहन सहन खानपान से अलग कर लेने के बाद बातचीत भी यदा-कदा होती किन्तु पिता के मन में टीस थी कि संकट में अपने माता पिता भाइयों को अकेला छोड़कर सपरिवार अलग हो जाना बहुत स्वार्थ पूर्ण बर्ताव था जो उन्होंने पुत्रों को कभी न सिखाया था l अपनी शारीरिक दशा को देखते हुए उन्होंने वकील को बुलाकर अपने बाहुबल से बने घर जमीन का छोटा हिस्सा बंशी को बटवारे में देकर, बाक़ी सब रघु और लाखन के बीच वसीयत लिखा दिया l
एक दिन बद्री को अपना पुराने काम का विवाद में फंसा पैसे का चेक मिला,साथ में एक प्रस्ताव भी मिला कि ,प्रिय बद्री तुमने बड़ी लगन से हमारे कंपनी की सेवा की है सरकार ने हमारी कम्पनी में बहुत बकाया निकाल कर घाटे में पंहुचा दिया था ,विवाद में फंसी रकम का निबटारा हो गया है , जिसका वाजिब हिस्सा तुम्हे भेजा जा रहा है l तुम अपने काम को पहले से बढे रेट पर करने की मंशा हो तो ,काम पर लग सकते हो l
कम्पनी के इस प्रस्ताव से बद्री को मानो, मन की मुराद ही मिल गयी ,परन्तु समस्याओ के बीच ही कहीं न कहीं समाधान भी छिपा होता है l बद्री बीमारी के कारण कमजोर हो चुके थे उन दिनों मझला बेटा रघु मिडिल की पढाई कर रहा था सो उसकी बुद्धि कौशल को देखते हुए काम की जिम्मेदारी रघु को सौंपकर बाहर से नजर रखते रहे l अभी जिस कंपनी ने काम दिया था वह काफी खुश थी, रघु के छोटे उम्र और बुद्धिमत्ता देखकर सहज ही ममता और बाल स्नेह सभी कर्मचारियों में उमड़ पड़ता था l अब तक काम बहुत विस्तार ले चुका था उसी हिसाब से आर्थिक हालात बहुत अच्छे हो गए थे l
समय चक्र अपना काम करता रहा ,इधर हर बरस बंशी के पुत्रों में लगातार वृद्धि होती रही जिसमे आर्थिक सहायता और तबियत पानी की जिम्मेदारी रघु ने बखूबी जारी रखी l माता लक्ष्मी की कृपा से घर धन-धान्य से भर गया l कच्चे घर पक्के हो गए , माँ को गहनों से लाद दिया समाज परिवार में रघु की दया और कर्मठता के बड़े चर्चे होते रहे l माँ की नजरों में रघु बड़ा ही दानशील दयावान और न्यायप्रिय था l अलग रहते अपने भाई बंशी के बच्चों की शिक्षा दीक्षा बेटे बेटियों की शादी की पूर्णता का ध्यान रखते हुए छोटे भाई लाखन की गृहस्थी भी बांध दी तब लाखन छोटी सी नौकरी पाकर खुश था l
अब बद्री दुनिया से जा चुके थे, किन्तु रघु इस बात पर चिंतित रहता था कि पिताजी नाराजगी वश हिस्से में बंशी भैया को कम जमीन दे गए थे जिसकी भरपाई करना अब उसकी बड़ी जिम्मेदारी है सो पूरा हिस्सा सही करने के लिए जो भी उचित हुआ शेष रकवा भाई बंशी को दानपत्र लिख दिया l
अब रघु और लाखन के बीच बूढी माँ ही परिवार की केंद्र बिंदु थीं , माँ की सोच थी कि क्या पता,अब उसे भी कब दुनिया से जाना पड़ जाये सो उन्होंने अपने सभी गहने जेवर की पोटली को लाखन के हवाले करते हुए कहा कि इस पोटली के जेवर को रघु के बीच बराबर बाँट लेना l लाखन ने अब तक जो धींगामस्ती की थी ,उसे अनायास ही लाभ का अवसर मिला,जिसे न उसने रघु के बीच बांटा और न ही रघु ने ही कभी माँगा l माँ ने बेफिक्री से जेवर बटवारे के सम्बन्ध में कभी कोई नहीं टिप्पणी की l अनजाने में ही सही, जेवरों को हड़पने में लाखन को माँ की मूक सहमति मिली उधर रघु भी उस लालच से बेपरवाह था l
रघु की काम के प्रति लगन को देखते हुए कंपनी की ओर से भूमि और बंगला एक अच्छे स्थान में मिला गया जहाँ अपनी पत्नी बच्चों के साथ रहने लगा l छोटे भाई लाखन के भीतर रघु के हिस्से की साथ लगी भूमि संपत्ति हड़पने की युक्ति कुलबुलाने लगी l लाखन ने अपने बड़े भाई बंशी जो पहले ही अलग हो चुके थे और उसके पुत्रों को कुटिलता पूर्वक सलाह दी कि रघु के बाहर रहते हुए उसकी भूमि में निर्माण करके सहज ही भूमि को हथिया सकेंगे l ऐसी युक्ति बंशी और उनके लड़कों को बहुत पसंद आई और उन्होंने यह कर भी लिया l
रघु को यह सब जानकर बड़ा दुख हुआ कि जिनके भरोसे सब कुछ रख छोड़ा था आज उन्ही लोगों ने खयानत कर लिया, इस विश्वासघात पर उसे वह कहानी याद आगई जो उसके पिता बद्री अक्सर सुनाया करते थे कि “कडकडाती ठण्ड में बाढ़ में बहती हुई चुहिया को देख गिद्ध को दया आ गई और उसने झपट्टा मारकर चुहिया को उठा लिया और जमीन में रखा तब तक ठण्ड और पानी के थपेड़े खाकर चुहिया अधमरी हो चुकी थी ,गिद्ध ने उसे गरमाहट देने के उद्देश्य से पंखों के बीच रख लिया l थोड़ी देर में गिद्ध ने पंख खोला तभी एक ओर पंख लुढ़क गया ,चूहे की कुतरने की प्रकृति जो थी l यही मूल अंतर था दोनों के बीच प्रकृति में l
माँ भी दुनिया छोड़ चुकी था ,रघु की आत्मा चीत्कार कर उठी ,जो भी लाखन ने और बंशी के बच्चों ने मिलकर किया, गलत था l एक बार कहते तो…अब तक क्या नहीं दिया ,परन्तु मेरी आँखों में धुल झोंककर ,मिलीभगत करके अन्याय पूर्वक संपत्ति हड़पना माँ की छाती में लात मारने जैसा अहसास हुआ l आपसी बातचीत के सारे रास्ते बंद देखकर रघु ने अपनी 70 साल की उम्र में न्याय के लिए अदालत की शरण ली l वकील करके लम्बे-लम्बे तर्क युक्त दावे बनाए गए जीवन की संध्या पर बिन खाए पिए ,दौड़ धुप करके कानूनी कमियों पर सलाह जारी रही समाज और परिवार के जिम्मेदारों से भी मध्यस्थता की चिरौरी भी जारी रही , किन्तु प्रयास बेअसर रहा l दावे में लाखन,बंशी और उसके पुत्र गण को पक्षकार बनाया गया ,उचित स्टाम्प लगाकर अंततः दावा दायर हो गया l
अदालत की सुनवाई शुरु हुई पेशी हर महीने मिलती रही जिस पर मुक़दमे में पैसे और समय की बरबादी शुरू हो गयी अपने हक़ की कानूनी लड़ाई में रघु शरीर से ही नही मन से भी टूटता रहा बीमारी भी किसी की सगी हुई है ,सो उसने भी अपना रंग ज़माना शुरू किया l अब अदालती प्रक्रिया को कुटिलता से खेला जाने लगा अदालत दस बजे से लगती प्रतिवादी देर से आते ,उनके आते ही लंच हो जाता,लंच के बाद अदालत बैठती अब व्यस्तता के कारण पेशी अगली पुनःअगले माह की मिलती l गवाहों को तैयार किया जाता उन्हें हर पेशी में लाया जाता l अब तक गवाह भी तंग आकर परहेज करने लगे उन्हें रोज का नुकसानी भी गवाहों को भुगतान करनी पड़ती थी l ऐसे ही पेशियाँ बढ़ती रहीं प्रतिवादी लाखन , बंशी और उसके पुत्रों में से बंशी की मौत हो गयी l
अदालत में नियम है कि पक्षकार की मृत्यु के बाद उसके वारिसों को पक्षकार बनाया जाता है ,किन्तु प्रकरण में पहले से ही उसके पुत्र पक्षकार बने हुए हैं यह सोचकर उन्हें पक्षकार बनाने की कार्यवाही नही की गयी अलबता काफी अरसे से बोलचाल ,खान-पान बंद होने के कारण उसकी बेटियों के ठौर ठिकाने नहीं पता होने पर इस प्रक्रिया में आठ -दस दिन की देर हो गयी l
प्रकरण चलने के अब तक पंद्रह बरस हो चुके थे ,अगली पेशी में पूरा प्रकरण उपसमन हो गया यानी पक्षकार न बनाये जाने पर प्रकरण ख़ारिज l जबकि पहले से ही सभी पुत्र पक्षकार बने हुए थे , यह विधि की बड़ी भूल थी ,रघु की आत्मा शरीर मन सब कुछ टूट गया ह्रदय की बीमारी ने अपना डेरा जो जमाया तो लगा कि क़ानून को लोगों की जिंदगी कितनी मजाक सी लग रही है जीवन की कडवाहट किससे कहें ,क़ानून की अदालत जिसकी शरण में जाकर सुरक्षा की गुहार लगाईं वहां भी धोखा मिला l
अदालती प्रक्रिया में उपसमन पर पुनर्विचार का प्रावधान भी है सो अगली पेशी में आवेदन किया गया यहाँ भी अलग किस्म का खेल चला l किसी विचारण का अंतिम फैसला होना तय हुआ है तो प्रतिवादी कैसी भी चिट्ठी खोंस कर चला जाता , अब उस चिट्ठी पर विचारण की तारीख नियत होती इसी तरह बिलम्ब का सिलसिला चलता रहा ,न्याय के नाम पर न्यायालय ने भी बहुत सारे अवसर देकर नाहक ही समय बर्बाद किया l जब जज अवकाश से लौटते तो अगली पेशी आदेशार्थ के नाम से निष्फल होती , यह भी चला छै वर्षों तक ,कभी सकारात्मक संकेत मिलते रहे तो आशा भी बढ़ती रही l एक दिन पता चला उच्च न्यायालय से फरमान आया है कि पुराने प्रकरणों को जल्दी निबटान किया जाना है , सो अदालत ने प्रकरण को शीघ्र निबटा दिया ख़ारिज करके और दे दिया फैसला कि पिछली अदालत का फैसला सही था l
रघु , जीवन की कडवाहट के साथ अदालत के न्याय दंश को आत्मसात करके, बिना न्याय पाए दुनिया से चल बसा l शायद इसीलिये लोग अदालत जाने की बजाय क़ानून को हाथ लेकर खुद ही फैसला कर लेना वाजिब समझ कर अपराध कर बैठते हैं और अदालतें निर्विकार भाव से निरंतर पेशी पर पेशी देकर परमेश्वर बनने का ढोंग करती रहतीं हैं l जिसका भावी परिणाम अपराध वृद्दि विस्फोट के रूप में होगा और वे दिन दूर नहीं कि ऐसे ही कोई रघु जजों से अपने बीते समय का हिसाब लेने लग जाय , तब फैसला कोई भी न्यायालय के लिए संभव न हो सकेगा l