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उपेक्षित..

मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

बांस को काट छील कर

धैर्य की पराकाष्ठा को

सिर में लादे

फटे गंदे चीथड़ों

में  लिपटकर

आजीविका की

अंतिम श्रेणी में बंटा हूँ …मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

टोकनी ,डलिया,

सूप के अलावा,

आपके ड्राइंग रूम से

रसोई तक ,

पावन अवसरों को

सार्थक करके ,

बांस के रेशों में बनी  

चीजों से आप तक

जुड़कर भी ,

दूर ..बहुत दूर हटा हूँ …मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

फिर भी क्यों

धिक्कार है मुझे ..?

“धईकार” नाम पड़ा है

गर्व से हिंदुत्व की

विशाल छाती,

पीटकर नेता बेबस,

हाथ बांधे खड़ा है

आजादी का कचरा मैं  

प्रगतिशील देश के,

अर्थ से ही कटा हूँ … मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ l

मेरी आजीविका में ,

सूअर के थूथनों की मार है l

अस्थमा ,क्षय, कर्क से

लड़ रहे आदमी पर

करुणा से रोती,

मौत भी लाचार है l

घृणा पीकर भी

अपमान ओढ़कर

दूर गाँव के कोने पर

शमशान से सटा  हूँ …मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ l

बांस की फरथालियों से

जूझता परिवार ,

सूअरों के बैरेक में

खोजता अपना कल,

आज की जुगाड़ में

जंगलों पहाड़ में

रुग्णता को भूल

जिंदगी की दो बूँद

की आश में

आदि मानव की भांति

इस कदर बंटा हूँ ….मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

इंसानी जिन्दगी के

अनमोल पलों को

यादगार बनाने को

पंखे टोकनी के

साज सजाता हूँ l

अच्छे दिनों की आश में

आपके जन्म से मौत तक

ढोल ताशे बजाता हूँ l

इंसानी हिकारत का

शब्द एक चटपटा हूँ …मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

विश्व गुरु बनने की दौर में

मैं कृषक तो दूर

कृषि मजदूर भी

न बन पाया

समाज की दीवार का

ईंट कहते हैं मुझे

कोई सुध लेता तो सही   

खाया कि नही खाया

समाज की सीढी का

दबा कुचला पटा हूँ …मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ l

क्षणभंगुर मूक भूमिहीन

उपेक्षित हर बार

विकास की उफनती नदी

बहा देती मेरा घर द्वार

जब भी उबरने को सोचता

गिराने को सभी

बैठे हैं  तैयार  

न जाने क्यूँ ठगा सा

मै ही अहमक,

समाज में ही डटा हूँ … मै आज भी समाज में

हासिये से बाहर हटा हूँ

एकलव्य

हौसला ..