तेरे पिघले शीशे ने
हमारे कान को और
कटी जिह्वा को,
और भी तेज कर दिया …
कि सन्ततियां भी
विचारों से धारदार व
पैनी हो गयीं हैं …l
तेरे किये
प्रकाशहीन नेत्र
अब निहारते हैं
रूकावटों के पहाड़ के
उस पार …
बहरे कानो में गूंजती ,
विरोधी ,विद्रोही टंकार..l
कल जिन्हें तूने बनाया मूक
आज हुआ मूकनायक
बेबस मस्तिस्क भी
शुरू कर दिया
दूर करना अंधकार,
सावधान हो अब
शातिरी से बाज आ
मचने को हाहाकार l
तेरी बेड़ियों को
शोषितों ने
दिया है नकार…
शमन करने में व्यस्त
तेरा कड़ा इंतजाम
करने को ध्वस्त ,
जस का तस
चल पड़ा है जैसे
कोई “काल राक्षस”