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कृति-दोष

प्रभु तू है निराकार,
अप्रतिम कलाकार l
तेरी महानता पर,
नतमस्तक शीश सार l

मै भी हूँ मूर्तिकार,
कला मेरा काम है l
लगभग इस क्षेत्र मे,
हमारे काम समान है l

लाज आती है मगर,
बात कहना है जरूरी l
नहीं कह पाऊँ अगर,
तो जिंदगी होगी अधूरी l

मेरी मूर्तियां आपस मे,
कभी भी लड़ती नहीं l
कौन बड़ा है या छोटा,
विवाद मे पडती नहीं l

आज्ञाकारी बन सदी से,
सर उठा कर वे खड़ी l
भाव रूपक भंगिमा ले,
कथा वाचक बन अड़ी l

तुम्हे छोड़, मेरी कृति को,
लोग अब क्यों पूजते l
तुम्हारी कृतियां धर्मान्ध हो,
आपस मे क्यों जूझते l

इस तरह तुम्हारे बनाये ही,
तुमको खुलकर नकारते हैं l
मेरी बेजान मूर्तियां ले,
सड़कों पर दहाड़ते हैं l

मेरी मूर्तियां,सब सुनकर,
बिखेर देती प्यार हैं l
पर तुम्हारी हर कृति,
लड़ मरने को तैयार है l

मेरी कृति क्यों श्रेष्ठ तुझसे,
मुझमे यह शर्मिंदगी l
आक्रांत होना हो उचित तो,
छीन ले यह जिंदगी l

प्रभु विनय सुन लो हमारी,
सुधार लो अपनी कृति को l
नष्ट कर आक्रांत ग्रंथी,
बुद्धि भर दो मूढ़ मति को l

चलो चलें अब..

मै कलम हूँ