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कौन हो तुम

हमारे वजूद पर
धधकते गोले सा
जब दागता है सवाल,
दिखाकर माथे का रोगन
श्रेष्ठता का ढोल पीट,
मचाता है बवाल l
मेरी पीड़ा चीख उठती
हम आदमी हैं जनाब
भौहें तानकर कहता
“अछूत हो तुम “
तुम्हारी जात है ख़राब l
हमारी सेवाभाव
माँ की भांति
तुम्हारा मल साफ किया
और पैर में जूते पहनाये
वस्त्र बुने,औजार पीटे
तुम्हारी छातियों में
औकातों के दम बनाये l
उसी श्रम को धिक्कार कर
तुम्हारे पिघले शीशे ने
हमें ज्ञान से वंचित किया l
लहू को निचोड़कर भी
हम देते रहे भीख
और तुम…
हमारी रोटियां ही नहीं
बेटियां भी रक्त रंजित किया l
आज कतार के अंत में
खड़ा कर पूछते हो
“कौन हो तुम”
हमारी नस्लों की
जड़ें काटकर
फरेब चालें साजकर
मौन हो तुम…
हम डाक्टर, वकील या
इंजीनियर होकर
समाज में अपनी
श्रेष्ठता दिखाते हैं,
पर जाति, जाती नहीं
जब हिंदुत्व का मोहरा,
लोग हमको बनाते है….
जब हिंदुत्व का मोहरा
लोग हमको बनाते है
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मुर्दों को गीत सुनाता हूँ

आत्मसम्मान