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पिता

छलक रही अविरल अनुपम ,

ममता की वह छाया तुम हो l

तुम दधीचि सा त्याग समर्पण ,

जीवन के योद्धा भी तुम हो l

तिल तिल जल दीपक सा तुमने ,

हमको आत्मप्रकाश दिया l

संरक्षक का भाव तुम्हीं दे ,

ऊर्जा का संचार किया l

तुमने बाँधी नीव हमारी,

संस्कार का कवच दिया l

बचपन में पकड़ी थी अंगुली ,

आज समूचा विभव दिया l

तुम हो तो जग है अपना ,

तुम बिन लगता अन्धकार l

कहाँ विधाता को मै खोजूं ,

जब तुममे पाया संसार l

तुमसे जिद्दी बालक बनकर ,

हम रहे छीनते सुख साधन l

मेरी उन्नति की चाह लिए ,

तुम हार गए खुद अपनापन l

सिद्ध हुई जब जीवन गाथा ,

तभी वृद्ध तुम बन आये l

हे अनुभव के चिर प्रकाश ,

कोई क्लेश तुम्हे न छू पाए l

मच्छर

न्याय दंश –