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मै भ्रष्टाचार हूँ

देश के कपाल पर,
कलंक का प्रहार हूँ l
लील कर विकास को,
विनाश की बयार हूँ l
निरीह की कराह बन,
आज का विचार हूँ l
नियत,नियम से परे,
हाँ मैं भृष्टाचार हूँ ….

दहाड़ रक्त चूसकर,
करता मैं शिकार हूँ l
धर्म को कुरूप कर,
हर आदमी को तोड़कर ,
अशांति का विस्तार हूँ l
नहीं चाहता अमन ,
मैं वो मनोविकार हूँ l
हाँ मैं भृष्टाचार हूँ ….

राष्ट्रकोष चूसती,
धमनियां निस्तन्त्र हो ,
लोकतंत्र बे वजह,
क्यूँ भला स्वतंत्र हो ?
राजनीति के लिए,
नीतिगत सुधार हूँ l
मैं बहुत उदार हूँ,
हाँ मैं भृष्टाचार हूँ….

लूट कर हुँ मैं चला,
समंदरों के पार लो l
चाट धर्म की अफीम ,
गर्दनें उतार लो l
कांड हो या बांड हो,
फ़कीर की पुकार हूँ l
टंगे झोले में छिपा,
हाँ मैं भृष्टाचार हूँ….

साहेब बतायेंगे

जियें वर्तमान में