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शिल्पकार की पीड़ा

एक शिल्पी जिसने न जाने
कितने शिलाओं को
किया मूर्तिमान ,
अब शिलाओं को
न जाने क्या हुआ
सटीक छैनी की मार को
नकारातीं हैं

पहले मूर्तिमान होने को
शिलाएं खुद से
चोंट की चाह में
खिंची आती थीं कि –
उभरेंगे  नए चेहरे ,
आवरण आचरण भी
मूर्तिमान होने की होड़ पर
उतावली होती थीं ..

आज हवा पानी ने संस्कारों के
शिलाओं के रेशे ही
बदल दिए
छैनी लगते ही दरकती
शिलाएं और कहीं से,और
कल्पना शिल्पी की
धरी रह जाती है

न जाने क्या हुआ
शिलाओं ने खो दिया
रेशों की लोच
स्वीकार्यता ,समर्पण
शिल्पी को भांपने की सोच
वह सब खो सी गयी है

अब मिलती है
अनगढ़े पत्थरों की
नुकीली ,चुभीली
नाकारा जिद्दी सोच l
अब नही चाहतीं शिलाएं
होना मूर्तिमान
अपने मूल को बदलने से
नकारती हैं

हवा पानी अब
शिलाओं में रेशे बनाना
भुला कर
बहते रहना  चाहती हैं
शिलाएं आज भी अनगढ़
चुभीली अव्यवस्थित
मौन खड़ी रहना
चाहती हैं l

डालर और रूपया(बघेली)

विधाता