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चौपट राजा

डुगडुगी बजाता हुआ अंधेर नगरी  का कारिन्दा अपनी आवाज बुलंद करता हुआ बोला सुनो ..सुनो ..सुनो  राजा का आदेश है कि उसके पुत्र की तबीयत नासाज है ,जो उसे ठीक कर देगा उसे बतौर बख्शीश दस गाँव दिए जावेंगे l वैद्य उन दिनों बड़े ही मुश्किल से मिलते थे वो भी पुरुस्कार के लोभ में  खासतौर से राज दरबार में l राजा के बेटे की चिकित्सा में सारे वैद्य लग गए खूब पौष्टिक आहार,शुद्ध घी,मेवे आदि खिलाये गए l बेटा ठीक होने का नाम नहीं , उलटे तबीयत बिगडती चली गयी  l विद्वान राज वैद्य ने एक दिन गंभीरता से नाडी परखी उसने पाया कि युवराज को व्यायाम की ओर मोड़कर स्वास्थ सुधार करना चाहिए  l राजा ने राजवैद्य को बुलाकर कहा कि तुम मेरे मातहत हो मै जैसा कहूं वैसी ही चिकित्सा करो,आदेश का पालन हो l

     राज वैद्य ने राजा को विनय पूर्वक कहा हे राजन आप राज्य के शासन प्रणाली के विशेषज्ञ हैं  और मैं चिकित्सा का ,इसलिए मुझे ,मेरे काम को करने में कोई व्यवधान या हस्तक्षेप उचित नहीं है  l राजा , राजवैद्य की बात सुनकर अत्यंत क्रोधित हुआ और उसे राज्य छोड़ देने का आदेश दे दिया l राजवैद्य बिना कुछ कहे राजा के कोप भय से  राज्य को छोड़ कर पड़ोसी राज्य में बस गए और चिकित्सा करने के साथ साथ चिकित्सा विज्ञान का अध्यापन भी करने लगे ,सुभाषित में  कहा गया  है :-

विद्वतम  च  नृपत्वम् च नैव तुल्यं  कदाचन  l स्वदेसे  पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते l l

“अर्थात विद्वान् और राजा में कभी तुलना नहीं करना चाहिए ,राजा केवल अपने राज्य में पूजा जाता है जबकि विद्वान सर्वत्र पूजनीय होते हैं l”

   अब पड़ोसी राज्य में लोग स्वास्थ और चिकित्सा में निपुण होने लगे l  पडोसी देश में चिकित्सा विज्ञान की उन्नति देख कर अंधेर नगरी का राजा बड़ा सोच में पड़ गया ,उसने अपने चिकित्सा विज्ञान में उन्नति के लिए आत्म निर्णय से असम्बद्ध विधिशास्त्री ,प्रशासकों और ढेर सारे सलाहकारों और मंत्रियों को दरबार में रख लिया जिन्होंने गंगा जल, गौ सेवा, गौ मूत्र , और गोबर से चिकित्सा और देवों की कृपा पाने हेतु  मंदिरों के निर्माण पर अभियान छेड़ दिया, किन्तु युवराज के तबीयत में  सुधार की अब तक कोई तकनीक व तरकीब  नही सूझी , दिन दिन हालत बद से बदतर होती गयी l राजा चापलूसों की भीड़ के बीच घिरे रहने के  कारण सही  सलाह से कोषों दूर  रहते हुए अपने  मन की बात  ही  कहता  रहता था ,प्रजा के मन की बात उसे भाती नहीं थी  l दूसरों से सीखने मे उसे अपनी कमजोरी और हीनता  का अहसास होता था , इसलिए वह अहंकार के वशीभूत होकर  मिथ्याभासी भी हो गया था, साथ ही विद्रोह  की आवाज दबाने के लिए अलग प्रकार की  फ़ौज खडी रखता था l अब चापलूसों से घिरे अहंकारी राजा को अपने पुत्र के गंभीर  बीमारी का अहसास होना भी बंद हो गया अर्थात संवेदनहीन हो चला था l  प्रमाद व्यसन के परिणाम स्वरुप राजा के पुत्र की मौत हो गयी स्वास्थ विज्ञान की हालत यह हो गयी  कि राज्य में रोग व्याधि  और तबाही का भयंकर तांडव मच गया जो विधाता के  ही भरोसे था  l राज्य  की  अर्थ -व्यवस्था  भी  नियंत्रण   से   बाहर  हो  गयी   राजकोष   में  अर्थशास्त्रियों के बजाय तालियों की गडगडाहट पसंद

करने वाले  चापलूस और संवेदनहीन लोगों के समूह  रखे गए जो मूसकों की भांति राजकोष को कुतर-कुतर के खाली कर  रहे थे देश-विदेश में  यह राजा अपनी महिमामंडन करने में नही अघाता था l राज्य में आन्तरिक संकट के लिए निरीह चीलों और कौओं पर दोष मढ दिया जाता  था l चापलूस  समर्थक गण की फ़ौज उसी के सुर में सुर मिलाने लगे l धीरे धीरे उसके राज्य के विद्वानों में  असंतोष की लहर फैली जो राजा के लिए कहर बनकर आई l पुत्र की मौत के बाद रोग महामारी में बदल गया उस महामारी ने राज्य में बहुत लोगों को असमय लील लिया,बिना चिकित्सा के ही अनगिनत लोग  काल कवलित हो गए इसी समय  अपना भयानक रूप लेकर महामारी ने  राजदरबारियों को घेरा और राजा को भी संक्रमित कर मौत के घाट उतार दिया  l

         काश …राजा ने अहंकार और हठधर्मिता वश राजवैद्य को राज्य से बाहर न किया होता तो चिकित्सा विज्ञान इसी राज्य में उत्तरोत्तर उन्नति शील होता और महामारी में सब के प्राण बचा लिये गए होते  l चिकित्सा विज्ञान की उन्नति को लेकर असम्बद्ध विधिशास्त्री प्रशासकों और ढेर सारे सलाहकारों और मंत्रियों को दरबार में रख लेना और राजकोष में अर्थशास्त्री को रखने के बजाय चापलूस लोगों की नियुक्ति किया जाना , राजा के दम्भी और बुद्धिहीन होने का प्रमाण था l इसीलिये विद्वान् को सदैव आदर के साथ पुष्पित पल्लवित होने देना चाहिए “देश के लिए विद्वान की विद्या और विज्ञान रक्षक का काम करते है” 

           जैसा कि सभी जानते हैं कि ज्ञान के प्रकाश को दंभ इस प्रकार रोक देता है जैसे सूरज के प्रकाश को बादल आच्छादित कर लेता है  और क्षणिक आत्मसुख के लिए चापलूसों का जमावड़ा सकारात्मकता की सोच के बहाव को रोक कर मैला कर देता है l जिस प्रकार  दूध का प्रभाव  अमृत होता है और  आभाव दुर्बलता लाता  है  उसी प्रकार किसी राज्य के लिए ज्ञान ,विज्ञान,विचार मंथन के वैभव को खुले आसमान जैसी  स्वायत्तता का परिवेष मिलते ही  प्रगति अपने पंखों की स्वच्छंद उड़ान से प्रबल होकर अपरिमित हो वैश्विक सीमा लाँघ जाती है  l

   इस कहानी का उद्देश्य है कि कातर स्वर की पहुँच , यदि मन के रास्ते से हो  तो अहसास की पीड़ा मरहम लगाने को बाध्य हो जाती है , बशर्ते सोच दंभ और आडम्बर रहित हो  l

टीप: कहानी काल्पनिक है इसे राजनीतिक आशय में न लिए जाने का अनुरोध है

संकट बदला अवसर में ..

कतार में बुढापा ..