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मैं वहां हूँ …

मैं बिलकुल नहीं हूँ
खोखले दिखावे मे ,
मंदिर मदरसों पर उलझती
सोच के बिखरावे मे l

पोंगा पंथी की जड़ता
और पेटुओ के चढ़ावे मे ,
नहीं हूँ मैं रूढि जकड़ा
ना किसी पहनावे मे l

कट्टर विचारों की छाप मे
मेरा न कोई झंडा है ,
अति की पराकाष्ठा का
न कोई अजेंडा है l

न रक्त रंजित सोच में
न राष्ट्रवादी आड़ मे ,
नहीं भरता दम किसी मै
देव की दहाड़ मे l

मैं नहीं उन्माद भरकर
दिखूं दंगे ओढ़कर ,
ये संविधान सबके लिए हो
मजहबो को जोड़कर l

साहित्य मे मैं हूँ नहीं
जो कल्पना की सोच ले ,
जुमलों मे तो कतई नहीं
जो पर-हितो को नोच ले l

मैं हूँ शोषितों शिक्षितों के
उन संगठित भाइयों मे ,
इतिहास की बन श्रृंखला
भीतर की गहराइयों मे l

जहाँ झुलसती भूख हो
और हिकारत, गंदगी ,
चिलचिलाती धूप पर
मै खोजता हूँ जिंदगी l

लोकतंत्र मेरी जुबां
मेरी शपथ सब ले रहे ,
मुझको कुतरने को खड़े
पर दुहाई मेरी दे रहे l

मैं किताबों मे छिपा हूं
बिल्कुल नहीं हूँ मूर्ति मे ,
शिक्षित बने जब संगठित
संघर्ष की स्फूर्ति मे l

ठहर जा …चुनाव है

चलो चलें अब..