आत्मसम्मान आत्मा के,
जिन्दा होने की रेखा है l
इसके रोगी अच्छे पदों को
लात मारते भी देखा है l
आत्मसम्मान वैराग्य सा,
लगने वाला स्वाद है l
खोया पाया के जगत में,
ऐश्वर्य हर बर्बाद है l
तर्कों के तरकश भरे,
आदमी बोलता आग सा l
काटता भले कम हो,
पर फुफकारता नाग सा l
इसमें होती “रीढ़” है,
जो कभी झुकती नहीं l
बहता श्रृजन की धार में
जो कभी रूकती नहीं l